यथार्थ के धरातल का कठोर होना नियति हो शायद पर पुरुषार्थ का हाल तो बंजर में लकीरें खिचता है ….
-महान नायकों की तरह पुनःश्च कह पाने की हिम्मत कितनी है हम में
-शायद इसलिए वो नायक महान हैं क्योंकि जीता है उन्होंने …अपनी वासनाओं , अहम् , भय और दर्द को .
पर इनसे परे वो आम इंसान भी है …
जो डरता है ,
खुद से ,
समाज से.
-जिसका अहम उसके परिजनों पर भारी पड़ जाता है .
-जिसकी जुगुप्सा उसे पशुतर बना डालती है .
-जिसकी एकाकी पीड़ा इस निष्ठुर समाज के पल्ले नहीं पड़ती ….
पानी का बुदबुदा क्षणिक होता है क्योंकि धरातल से वो जन्मता नहीं और सतह से ऊपर उठ नहीं पाता !
यही बात तो इंसान पर भी लागू होती है ….
महानायक सोचता है ,तारों भरे आकाश की और पा भी लेता है उसे ,
फिर आसमां की ज़ीनों से फिसल जाए तो कोई ग़म नहीं ,
एक खामोशी भरी मौत और जीने की कोई जिद्द नहीं .
और हम !!!
फांक -दर- फांक रस में इतने मोहासिक्त
के
टुकड़ा – टुकड़ा मौत मंज़ूर हैं पर जिजीविषा की कमी नहीं .
-संघर्ष को पहचानना नायकत्व की पहली सीढ़ी है .
अपने संघर्ष को पहचानो,
हर सांस में हताशा के मुंह पर एक मुक्का जड़ दो !
ज़िन्दगी के रंगमंच पर अपनी भूमिका के साथ न्याय करना ही तर्कसंगत है ,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सूत्रधार हम पर क्या टिप्पणी कर रहा है
या
निर्देशक ने इस नाटक का कैसा अंत निर्धारित किया है.
काक उवाच :
“हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी है ,
तुम सलामत रहो हज़ार बरस ,
ये बरस तो फ़क़त दिनों में गया .”
(गुलज़ार)