जीवन एक संभावना है

और जिसने भी जीवन को बनाया, वो चित्रकार नहीं बल्कि गणित का पक्का जानकार है

मैं अब तक उस इंसान से नहीं मिला जो कहता हो कि ये देखो ये फूल आपस में कितने एक से दीखते हैं । ये फसल की बालियाँ जुड़वां बहनें लगती हैं। परिंदों के पंखों को सहेज के रखने वाले बच्चे तो दिखे पर ऐसा कोई बूढ़ा ना दिखा।

याद है स्कूल में किताबों और नोटबुक में मोरपंख मिल जाया करते थे। क्या आज मिलते हैं वो मोरपंख? क्या आज भी बच्चे उन मोरपंखों के भोजन के लिए स्कूलों से चौक चुराया करते हैं?

बचपन में खेलते वक़्त एक बार गेंद पक्षियों के घोंसले में चली गयी। जब हम मित्रों ने झाँक कर देखा तो चटख नीले अंडे दिखे।

हम आश्चर्य से भर गए। एक जिज्ञासु बच्चे ने अंडा उठा तक लिया। उसे डांट-डपट कर हमने वो अंडा वापस रखवाया। पेड़ से नीचे उतरते ही हमारी बहस शुरू हो गयी। ‘वो अंडा कव्वे का था’ ‘नहीं वो कोयल का था, कव्वी तो भूरे अंडे देती है’ इस बहस में ही शाम हो गयी। अंधेरा होने से पहले हम बच्चे घर लौट गए।

दूसरी सुबह जब हम पहुंचे तो वो नीला अंडा नीचे गिरा पड़ा था। पता नहीं क्या हुआ? क्या हमारे छूने मात्र से वो अपवित्र हो गया? क्या हमने एक अजन्मे जीवन से उसकी गन्ध, उसकी पहचान छीन ली?

आज बचपन की उस बात से मुझे ऐनी डिलार्ड की वो पंक्तियाँ याद आ गयीं जिनका हिंदी में तर्जुमा कुछ यूँ हो सकता है कि हर चमकते अंडे के भीतर मृत्यु का गहन अन्धकार छुपा होता है.

वो कौन सी शक्ति है जो हमें चला रही है? उसके पास इतनी उर्जा, इतना मोटिवेशन कहाँ से आ रहा है? क्या वो भी किसी डेडलाइन के तहत काम कर रही है? उसके ऊपर ऐसा कौन-सा दबाव है कि वो एक जीवन को चुनती है और दूसरे को एक मौका तक नहीं देती?

मुझे तो लगता है कि भगवान, ख़ुदा, गॉड भी कोई बच्चा ही है । जीवन और मृत्यु के प्रति इतना दुराग्रह, इतना बालहठ कि जैसे ये खेल हो। वो प्राणियों को मृत्यु के दंड से कोंचता है। वो ईश्वर, जो बच्चों की तरह घोंघों और मेढकों को परेशान करते हैं, कुछ वैसे ही।

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इतनी बेफ़िक्री मार ना डाले तो क्या करे?

जो बच गए वो जीवित रह गए। और जो ज़िन्दा रह गए उन्होंने ज़िंदगियाँ बदलीं. और उन अनंत जीवनों से युग बदले।

युग क्या है सिवाय इसके कि करोड़ों प्राणियों का सांस लेना, सम्भोग करना और बिलबिलाते हुए मर जाना। ये बात जितनी सूक्ष्मजीवों के लिए सच है उतनी ही इंसानों के लिए। हमारे और उनके युग में कोई अंतर नहीं। हाँ! समय की परिधि छोटी-बड़ी हो सकती है।

हम जीवन की संभावनाओं को कितने ग्रहों. कितनी गैलेक्सियों में तलाश कर रहे हैं।

पर जीवन की संभावना मृत्यु है। तो कोई आश्चर्य नहीं कि पुराणों ने धरती को मृत्युलोक ही कह डाला. जो सही भी है।

ताश के पत्तों-सा हमें फेंटता हुआ वह: नियन्ता।

हमें वह निर्दयी लगे. पर हम अन्धों की तरह प्रकाश को समझने की कोशिश कर रहे हैं.

हमारी भावनाएं ही हमें अंततः मार डालती हैं।

मौत से डर नहीं लगता, मौत के बारे में सोचने से लगता है। मर जाना एक अभिव्यक्ति है हमारे लिए.अनुभूति नहीं।

जीवन की अनंत कड़ियाँ हैं जो एक से दूसरे से जुड़ती हुई इस संसार को चलाने का मुगालता पाल रही हैं।

पर सच बात तो ये है कि इस संसार को मृत्यु ही चलाती है। वो इंधन है और इंजन भी।

एक अँधा युग है ये। और इस युग के नियम तय हैं। जीना है तो मरना होगा। काल के निर्बाध चक्र में जो कील स्थिर है, वो ही इस दुनिया का स्थायी भाव है।

inspired from the writings of Annie Dillard

Footnotes: 1. All images except one from the Film Poster of ‘Gods Must Be Crazy’ are from Unsplash.com. 2. Film Watchlist: ‘The Gods Must Be Crazy’. 3. Reading List: Tinker at Pilgrim Creek by Annie Dillard. Read H.P. Lovecraft. Read Thoreau. 4. Think about life, think Memento Mori.